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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
यही नहीं कि हम्हीं जिस्मो-जां की क़ैद में हैं
ये बहरो-बर भी ज़मानो-मकां की क़ैद में हैं।

जमां मकां पे मुहीत अगाही के सब किरदार
अज़ल से कश्फ़ हुई दास्तां की क़ैद में हैं।

हैं मुंतज़िर तिरी बन्दा-नवाजियों के सभी
तिरे मुरीद तिरे आस्तां की क़ैद में हैं।

हों जिनके चार तरफ चिलचिलाती धूप के दश्त
वो क्या कहेंगे कि हम सायबां की क़ैद में हैं।

उन्हें यकीन की आसूदगी मिले कैसे
ब-ज़ोमे-ख़्वेश जो वहमो-गुमां की क़ैद में हैं।

हरेक शख्स है अपनी अना का ज़िंदानी
मकीन जितने हैं अपने मकां की क़ैद में हैं।

सबील कोई मफर की कहां से निकलेगी
ऐ मेरे दोस्त! हम अपने बयां की क़ैद में हैं।

बहुत कठिन है डगर सर-फ़राज़ होने तक
सभी किसी न किसी इम्तिहां की क़ैद में हैं।

वो कद्रो-क़ीमते-अमनो-अमां कहां समझें
जो महज़ शौकिया तेगो-सिनां की क़ैद में हैं।

है कौन ग़म से बरी ताजदारों-सूफ़ी सब
यहां की क़ैद में हैं या वहां की क़ैद में हैं।

बता फिर ऐसे में आसी तिरे किधर जाएं
सब इल्तिजाम तो कर्रो-बयां की क़ैद में हैं।

किसी को क्या पड़ी, है कौन कितने पानी में
सभी तो अपने ही नामो-निशां की क़ैद में हैं।

जो खुश हैं वो भी किसी ख़ौफ़ के हैं ज़िंदानी
जो खुशनहीं हैं वो आहो-फुगां की क़ैद में हैं।

ज़मीं को छोड़ के भी आफ़ियत कहां 'तन्हा'
चहार सम्त से जब आसमां की क़ैद में हैं।
</poem>
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