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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
मुझको औरों से तो क्या, खुद से डर है कितना
बचना चाहूँ भी तो दरकार हुनर है कितना।

खाली लम्हों के तआकुब में रहेंगे कब तक
ज़िन्दगी तू ही बता और सफ़र है कितना।

मेरे ख्वाब और हैं और उसके तक़ाज़े कुछ और
मुझ से मानूस है घर मेरा, मगर है कितना।

शहर में जा के तो हम खुद को भी खो बैठे थे
अब जो लौटे हैं तो एहसासे-ज़रर है कितना।

किस क़रीने से दरो-बाम सजा रक्खे हैं
आमद आदम पे मिरी खुश मिरा घर है कितना।

अश्क़ आंखों में हैं और ग़म का धुआँ है दिल में
मेरी ख़ामोश दुआओं का असर है कितना।

साया, गुल, बर्ग, समर औरों की ख़ातिर हैं सब
सिर्फ अपने लिए बेकार शजर है कितना।

बैन करता है, बहुत लग के हवाओं के गले
वरना मजज़ूब-सिफ़त शांत खण्डर है कितना।

खेलते क्यों हैं हवाओं से ये नाज़ुक पत्ते
कौन बहलाये उन्हें इस में ख़तर है कितना।

शहर से ले के भी क्या जायेगी ऐ मौजे-हवा
तेरा फूलों भरी वादी से गुज़र है कितना।

फैलती जाती हैं इमकान की बाहें कितनी
मुंतशिर अपने ख़यालों में बशर है कितना।

सोच कर देख कि अशआर में तेरे 'तन्हा'
हुस्ने-ज़न कितना है और हुस्ने-नज़र है कितना।


</poem>
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