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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
}}
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<poem>
अगर'चेह जिस्म और जां तक भी फ़ानी ले के आया हूँ
मैं जुमला ज़िन्दगी की तर्जुमानी ले के आया हूँ।
जमानो-लामकां की बेकरानी ले के आया हूँ
अज़ल से मैं अबद तक की कहानी ले के आया हूँ।
मिरा इसियां मिरे हमराह जायेगा क़यामत तक
मैं अपनी जाविदानी की निशानी ले के आया हूँ।
यदे सैलाब कह लो या कोई फ़ितना क़यामत का
समंदर हो के दरिया की रवानी ले के आया हूँ।
मिरे अहसास ने बख्शी है मुझको दर्द की दौलत
महब्बत में मताऐ-जाविदानी ले के आया हूँ।
इलाहाबाद के संगम का मैं हूँ तीसरा दरिया
न मिट्टी ले के आया हूँ न पानी ले के आया हूँ।
मिरी हस्ती जनम देती है कितने ही फसानों को
मैं अपनी हर हक़ीक़त दास्तानी ले के आया हूँ।
बयां करते हैं किस्से और लोगों के जहां वाले
मगर मैं हूँ कि अपनी ही कहानी ले के आया हूँ।
तुम्हें वे-इहतियाती से ज़रा भी डर नहीं लगता
मगर मैं एहतियातन सावधानी ले के आया हूँ।
ग़मे-जानां, ग़मे-दौरां, ग़मे-फ़र्दा, ग़मे-उक़्बा
ज़रा से दिल पे ग़म की हुक्मरानी ले के आया हूँ।
हिसाबे-शायरी जोड़ा, तो जी का ही ज़ियां निकला
ब-फैज़े-शौक़ दिल की नातवानी ले के आया हूँ।
मैं जब भी आइना लाता हूँ अपने सामने 'तन्हा'
तो क्यों लगता है मर्गे-नागहानी ले के आया हूँ।
</poem>
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|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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अगर'चेह जिस्म और जां तक भी फ़ानी ले के आया हूँ
मैं जुमला ज़िन्दगी की तर्जुमानी ले के आया हूँ।
जमानो-लामकां की बेकरानी ले के आया हूँ
अज़ल से मैं अबद तक की कहानी ले के आया हूँ।
मिरा इसियां मिरे हमराह जायेगा क़यामत तक
मैं अपनी जाविदानी की निशानी ले के आया हूँ।
यदे सैलाब कह लो या कोई फ़ितना क़यामत का
समंदर हो के दरिया की रवानी ले के आया हूँ।
मिरे अहसास ने बख्शी है मुझको दर्द की दौलत
महब्बत में मताऐ-जाविदानी ले के आया हूँ।
इलाहाबाद के संगम का मैं हूँ तीसरा दरिया
न मिट्टी ले के आया हूँ न पानी ले के आया हूँ।
मिरी हस्ती जनम देती है कितने ही फसानों को
मैं अपनी हर हक़ीक़त दास्तानी ले के आया हूँ।
बयां करते हैं किस्से और लोगों के जहां वाले
मगर मैं हूँ कि अपनी ही कहानी ले के आया हूँ।
तुम्हें वे-इहतियाती से ज़रा भी डर नहीं लगता
मगर मैं एहतियातन सावधानी ले के आया हूँ।
ग़मे-जानां, ग़मे-दौरां, ग़मे-फ़र्दा, ग़मे-उक़्बा
ज़रा से दिल पे ग़म की हुक्मरानी ले के आया हूँ।
हिसाबे-शायरी जोड़ा, तो जी का ही ज़ियां निकला
ब-फैज़े-शौक़ दिल की नातवानी ले के आया हूँ।
मैं जब भी आइना लाता हूँ अपने सामने 'तन्हा'
तो क्यों लगता है मर्गे-नागहानी ले के आया हूँ।
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