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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
आदमी है आदमीयत से जुदा
ज़िन्दगी का ये भी इक अंदाज़ है

कितनी महँगी हो गई जिन्से-वफ़ा
आदमी है आदमीयत से जुदा
कारोबारे-ज़ीस्त गुड़ गोबर हुआ

ज़िन्दगी को फिर भी इस पर नाज़ है

आदमी है आदमीयत से जुदा
ज़िन्दगी का ये भी इक अंदाज़ है।
</poem>
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