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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
रुख़-ए-हयात न ढलता कभी अगर उसका
दिल-ओ-नज़र के उजाले मुहासिरा करते

यही नतीजा निकलता है हर तजस्सुस का
रुख़-ए-हयात न ढलता कभी अगर उसका
नज़र से जाविया रख कर कोई तक़द्दुस का

बड़े अदब से सरे-बज़्म तज़किरा करते

रुख़-ए-हयात न ढलता कभी अगर उसका
दिल-ओ-नज़र के उजाले मुहासिरा करते।
</poem>
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