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13:14, 13 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
डूबते सूरज का मंज़र ख़ूबसूरत है, मगर
डूबते सूरज का ये मंज़र कहीं मक़तल न हो
पुर फ़रेबो-खुशनुमा-ओ-पुरअसर है किस क़दर
डूबते सूरज का मंज़र ख़ूबसूरत है, मगर
इसके बाद आना है काली रात का अंधा सफ़र
सुर्ख़-रूई देख कर आफाक की पागल न हो
डूबते सूरज का मंज़र ख़ूबसूरत है, मगर
डूबते सूरज का ये मंज़र कहीं मक़तल न हो।
</poem>