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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
जल बुझ के उसने ओढ़ ली फिर हसरतों की राख
आखिर चरागे-दिल पे वही हादिसा हुआ।

हालां कि हमने नाज़ उठाये भी उसके लाख
जल बुझ के उसने ओढ़ ली फिर हसरतों की राख
यक दभ चमक भी उट्ठा कि इसमें थी उसकी साख

क्या जाने ऐन वक़्त पे फिर उसको क्या हुआ

जल बुझ के उसने ओढ़ ली फिर हसरतों की राख
आखिर चरागे-दिल पे वही हादिसा हुआ।

</poem>
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