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धुंधली इबारत / उपासना झा

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<poem>
कई स्थगित आत्महत्याओं की
धुंधली इबारत
होते हैं हम सभी
कभी न कभी
दर्ज़ है जिसमें पहली दफ़ा
और उसके बाद कई बार
दिल का टूट जाना
उतनी ही बार दर्ज़ है ये शिक़ायत
कि दुनिया ज़ालिम है।
उस खंडहर पर एक आइना है
जिसमें चमकता है वो गहरा घाव
बड़ा गहरा
उस दिन का निशान लिए
जब अपने चारों उगाये थे कई बाड़
कई टूटी हुई, छूटी हुई शामें
और कई बिखरे हुए यकीन
उन नामों के साथ समय ने उकेर
दिए हैं
जो नाम खुद के नाम से ज़्यादा
अपने लगते थे
उन धुँधली-ढहती इबारतों में दर्ज हैं
कई चाँद-राते
कई सूने दिन
कई सर्द क़िस्से
कई रिसते रिश्ते
कई सख़्त रस्ते
जिनसे गुज़रे हैं
हम सभी... कभी न कभी</poem>
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