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स्मृति / उपासना झा

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1

दुःख-सुख की कई अवस्थाओं में से
समय ने जो छाँट लिया था
वह बच गया था मेरा अभीष्ट
वह बन गयी थी स्मृति

2

तुम्हें उतना बचा रखा था
जितना जिए जाने में बाधक नहीं था
जितना ला सकता था
एक छोटी मुस्कान कभी भी

3

तुम्हें उतना भुला दिया गया था
जितना उठा सकता था अमर्ष
जो जगा सकता था कोई
सुप्त असह्य पीड़ा

4

चुन लिया था समय ने
स्वर्ग- सब सुन्दर याद रखकर
भोर के स्वप्नों में बहुधा
नर्क झाँक जाता था

5

क्या और हो सकता था
ने उतना ही ठगा है भीरुता को
जितना ‘हम ने क्यों नहीं समझा’
ने कातरता को

6

अवचेतन में सिमटी रही
और जो एकाएक सामने आकर
कर गयी थी क्लांत
वह थी तुम्हारी गंध

7

स्पर्श आता था नहीं
स्मृति की ज्यामिति में
वह मिटता है सबसे पहले
रहता है सुरक्षित व्याप्ति में

8

स्मृति बन जाती है पगडंडी
जिसपर चलकर कभी भी
जाया जा सकता है
पुल के उस पार, अनामंत्रित

9

स्मृति इतिहास नहीं है
अतीत का पुनर्पाठ भी नहीं
स्मृति नहीं है वरदान
स्मृति है- केवल भंग आवृत्ति</poem>
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