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उलझन / हरिमोहन सारस्वत

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<poem>
इन दिनों उलझन में हैं कस्बे
गांव रहें या हो जाएं बाजार
सच पूछिए,
कभी नहीं थे इतने लाचार

रहना या होना
अब कहां रहा अपने हाथ
मुखौटों के बीच किससे बूझें
अपने मन की बात

बाजार होने के अपने खतरे हैं
गांव होने की अपनी सीमाएं
क्या करें, किधर जाएं ?

बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर टंगे
छोटे- छोटे सपने
लील गए हैं सारे सुख-चौन, सारे द्वन्द्व
डियो के सामने कैसे टिके गंवई गंध ?

गांव का अल्हड़पन
बाजार की नंगई गिरफ्त में है
तभी तो दिहाड़ी का पसीना
आटे से पहले रिचार्ज में व्यस्त है
घटती खेती बढ़ते खर्चे से
हर किसान त्रस्त है.
हां, गांव में खुले ठेके पर पहुंचे
मुर्दाए चेहरे बहुत मस्त है

बाजार के बहाने
पीपल गट्टे को हजम कर चुका है
कस्बे का नया गौरव पथ
आढतियों को लग चुकी है
डिब्बे और सट्टे की आत्मघाती लत

आज सब कुछ सिकुड़ रहा है
बढ़ रहे हैं तो सिर्फ बाजार
जिनमें गलियां और गुवाड़ ही नहीं सिकुड़े
घर, परिवार और मन तक
छोटे हो गए है
सच पूछिए, खोटे हो गए हैं

आज खुले मन से जीने वाले कस्बे
किस्तों में मर रहे हैं
और चिंघाड़ते बाजार
बाड़ का रूप धर
खेत चर रहे हैं.
</poem>
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