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<poem>
सोने की बड़ी चिड़िया
अभी भी है मेरा देश

हां
कुछ गोयड़ (जोंक) अवश्य चिपक गये हैं
इसके जिस्म से
जो चूसे जा रहे हैं
पेट भरने के बाद भी
मेरी सोनचिड़ी का लहू

उनका हश्र तो मैं जानता हूं

मेरी चिन्ता तो
उनकी दिन ब दिन
पसरती-बढ़ती
पीढ़ियों से है
जो पेट भरने के बाद भी
चूसते रहने के संस्कार लेकर आ रही हैं
और मेरी सोनचिड़ी का लहू
बिना रूके चूसे जा रही है

पर
मेैं हारा नहीं हूं
मिट्टी के संस्कार हारा नहीं करते


मैं तो गढ रहा हूं
मेरी सोनचिड़ी के लिये
नये नुकीले पंख
जिनकी पहली उड़ान की
फड़फड़ाहट के साथ ही
छिटक जांएंगीं
रक्तचुसक गोयड़ों की सारी पीढियां

और मेरी सोनचिड़ी
स्वच्छन्दता से उड़ पाएगी
इस नीले मटमैले से आकाश में !
</poem>
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