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बजट / हरिमोहन सारस्वत

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<poem>
हर साल आस लिए सुनता है
देश का ‘बजट’
मध्यम तबके का आदमी.
शायद इस बार
उसकी सूली पर टंगने की सजा
कुछ कम हो

परन्तु, बड़ी पंचायतों में बैठे हैं
बगुले, मगरमच्छ और सियार की खाल में
छिपे कुछ तथाकथित जनप्रतिनिधि
जो हड़प जाते हैं
बजट का बड़ा हिस्सा
बिना डकार लिए
और छोड़ देते हैं
सूली की सजा
टांगने को मध्यम तबके का आदमी

बड़ा टंग नहीं सकता
छोटे को टांगने का क्या फायदा ?
जो बचा वही तो टंगेगा
‘बजट’ के नाम पर.
आखिर सलीब पर कोई तो हो !
</poem>
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