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लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=ग्राम्‍या / सुमित्रानंदन पंत]]}}{{KKCatKavita}}<poem>बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर,मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर! मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव, मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव! सक्रिय यह सकरुण विषाद,--मेघों से उमड़ उमड़ कर भावी के बहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर! मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को, बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को; आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल, अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल!
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~कम्पित करता वक्ष धरा का घन गभीर गर्जन स्वर, भू पर ही आगया उतर शत धाराओं में अंबर! भीनी भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर! नव असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल, पीड़ित एकाकी शय्या पर, शत भावों से विह्वल, एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्वल याद दिलाती मुझे हृदय में रहती जो तुम निश्चल!
विदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर<br>रचनाकाल: जुलाई’ ३९ मेरे एकाकी मन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!<br>वह केसरी दुकुल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,<br>नव असाढ के मेघों से घिर रहा बराबर अम्बर!<br>मैं बरामदे में लेटा शैय्या पर, पीडित अवयव,<br>मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!<br>सक्रिय यह सकरुण विषाद, -मेघों से उमड घुमड कर<br>भावी के बहुस्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!<br>मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,<br>वर्ह भार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को,<br>आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,<br>अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल।<br>कम्पित करता वक्ष धरा का घन गंभीर गर्जन स्वर,<br>भू पर आ ही गया उतर शत धाराओं में अम्बर!<br>भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर<br>एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!<br>नव असाढ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,<br>पीडित एकाकी शैय्या पर, शत भावों से विह्व्ल,<br>एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल<br>याद दिलाती मुझे, हृदय में रहती जो तुम निश्चल!<br><br/poem>
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