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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''मिलके बोले देव धुनी, नभ गूंज उठा किलकारों से।'''
'''सब ब्रजमण्डल कांप उठा, जब कंस के अत्याचारों से।।टेक।।'''

द्वापर युग मथुरा नगरी में, उग्रसैन के कंस हुआ।
उसके कुकर्म से ब्रज में, धर्म का नाम विध्वंस हुआ।।
उग्रसैन थे भगत कंस कोई, राक्षस रूपी अंश हुआ।
गुप्त पाप करने से, लौकिक लुप्त भयानक वंश हुआ।।
ऋषि महात्मा बाला गऊ, छुप-छुप मारे तलवारों से।। 1।।

यज्ञ दान तप हवन कीर्तन, बन्द करा सन्ध्या करना।
नीति नेम मान मरियादा, तोड़-फोड़ धन्धा करना।।
बल करके अभिमान काम, जो करना सो गन्दा करना।
मन के माफिक भाव हाथ में, लिया तेज मन्दा करना।।
मन्दिर के पुजारी भगा दिये, व्यापारी भरी बाजारों से।। 2।।

छोटे छोटे बच्चों को, जमना में रोज डबोण लगा।
कंस दुष्ट से डरा मरा, मुनियों का मण्डल रोण लगा।।
जगह-जगह पै जाके नित, नये-नये झगड़े झोण लगा।
खुद गद्दी पै बैठ गया, सब काम कुकर का होण लगा।।
कर में आधा माल मंगाये, कृषक और जमींदारों से।। 3।।

सारी दुनिया कांप उठी, जब कंस के बल का शोर हुआ।
भले आदमी घबराये, दुष्टो के दल का जोर हुआ।।
बदल गई सब बात ख्यात में, झूठ पाप महाघोर हुआ।
समय-समय का राग रघुनाथ, मस्त दिल दौर हुआ।।
जुगनू मिलने को चाहता है, सूरज चांद सितारों से।। 4।।
</poem>
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