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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''वार्ता -''' द्रोपदी ने कहा मैं सन्धि नहीं, कौरवों के खून में अपने केश भिगोना चाहती हूँ यह सुन दुर्योधन क्रोधित हो अपना हाथ उठाके कहता है।

'''तर्ज -''' प. लख्मीचंद (करके प्यार बुलाई थी...)

'''बेअकली ने पांचों भाई, भूखे नंगे कर राखे।'''
'''पांव की जूती त्रिया ने, राजा भिखमंगे कर राखे।। टेक।।'''

खोटी शक्ल चुड़ैलों केसी, थारे वास्ते परी हुई।
यू नाश कराके मानेगी, मेरे मन में असली जरी हुई।।
कुणबा खाणी बहू निशानी, नीम नाश की धरी हुई।
नागण कैसा रंग काला, और जीभ जहर की भरी हुई।।
जब से ब्याही आई इसने, भारी दंगे कर राखे।। 1।।

त्रिया तलवे तले की हो, थारे मांथे बीच चश्म होली।
बोली आग तिजाब जाण के, काया मेरी भस्म होली।।
सबकी स्यामत आवेगी, अब उल्टी रस्म रीत होली।
तुम पांचों चुप त्रिया गाजे, यू नारी थारा खसम होली।।
मारे मारे फिरो हो भरमते, सुखा के डगे कर राखे।। 2।।

थारे आगे त्रिया पट-पट बोले, थारे शर्म और काण नहीं।
है त्रिया भरी चिलत्र की, ब्रह्मा भी सका पिछान नहीं।।
हट की हटीली जिद की पूरी, तके लाभ और हाण नहीं।
थारे जीते जी रासा है, तुम्हें देगी खाण कमाण नहीं।।
एक नारी ने पांच आदमी, भकाके बेढंगे कर राखे।। 3।।

जो त्रिया के चले कहे में, वो एक दिन पछतावेगा।
वेदव्यास का कथन, कथा महाभारत जो कोई गावेगा।।
हुआ बावला नहीं चैन में, ना न्हावे ना खावेगा।
कहने वाला सुनने वाला, भव सागर तर जावेगा।।
रघुनाथ कथा के आनन्द ने, मन मस्त मलंगे कर राखे।। 4।।
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