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<poem>
हाँ किसी-किसी दिन
अब सब कुछ भूलने लगी हूँ
अपना शहर
तुम्हारा नाम
वो तमाम
साझे सपने
वो समंदर किनारे
रेत का घर
कैसे गिरा था?
हर सुई का निशां
अलग नीला है
तुम्हारे काले कुरते से
कम गहरे हैं
मेरी आँखों के घेरे
मुझे बरसों से
नींद नहीं आयी
सबसे असरदार होती हैं
खुद को दी गयी बददुआएँ
</poem>