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{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|अनुवादक=
|संग्रह=परशुराम की प्रतीक्षा / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
किरिचों सामने देश माता का भव्य चरण है,जिह्वा पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?<br>जलता हुआ एक, बस प्रण है,काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?<br><br>पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम; <br>यम की दंष्ट्रा फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से खेल झूलते हैं हम।<br>,भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।वैसे तो कोई बात नहीं कहने कोमाँगेगी जो रणचण्डी भेंट,<br>चढ़ेगी।हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।<br><br>लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
सामने देश माता का भव्य चरण पहली आहुति हैअभी, यज्ञ चलने दो,<br>जिह्वा पर जलता हुआ एकदो हवा, बस प्रण हैदेश की आज जरा जलने दो।जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,<br>काटेंगे अरि भारत का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,<br>पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।<br><br>पूरा पाप उतर जायेगा;
फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों सेदेखोगे,<br>कैसा प्रलय चण्ड होता है !भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।<br>माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।<br>लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।<br><br>असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
पहली आहुति है अभीबाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे, यज्ञ चलने दो,<br>दो हवाधँस जायेगी यह धरा, देश की आज जरा जलने दो।<br>अगर चाहेंगे।जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगातूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,<br>भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;<br><br>हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
देखोगेजो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !<br>असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !<br><br>भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
बाँहों गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,<br>धँस जायेगी यह धराक्रोधान्ध रोर, अगर चाहेंगे।<br>तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगेहाँकों से,<br>हुंकारों से।हम जहाँ कहेंगेयह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है, मेघ वहीं घहरेंगे।<br><br>मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।अब जो असुरसिर पर आ पड़े, हमें सुर समझनहीं डरना है, आज हँसते हैं,<br>वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते जनमे हैं,<br>कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,<br>भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।<br><br>तो दो बार नहीं मरना है।
गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों सेकुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,<br>क्रोधान्ध रोरहम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे, हाँकों से, हुंकारों से।<br>यह आग मात्र सीमा की अरि का विरोध-अवरोध नहीं लपट हैछोड़ेंगे, <br>मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।<br><br>जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
जातीय गर्व गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर क्रूर प्रहार हुआ है,<br>माँ के किरीट गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर ही यह वार हुआ है।<br>,अब जो सिर भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर आ पड़े, नहीं डरना है,<br>जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।<br><br>गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगेखँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,<br>हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगेजाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,<br>अरि का विरोधकृष्णा-अवरोध नहीं छोड़ेंगेकछार में,<br>जब तक जीवित हैकावेरी-कूलों में, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।<br><br>चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—
गरजो हिमाद्रि के शिखरसोये हैं जो रणबली, तुंग पाटों पर,<br>उन्हें टेरो रे !गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों नूतन पर,<br>भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,<br>गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।<br><br>अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
खँडहरोंझकझोरो, भग्न कोटों मेंझकझोरो महान् सुप्तों को, प्राचीरों मेंटेरो,<br>टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;जाह्नवीविक्रमी तेज, नर्मदाअसि की उद्दाम प्रभा को, यमुना के तीरों में,<br>कृष्णा-कछार मेंराणा प्रताप, कावेरी-कूलों मेंगोविन्द,<br>चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—<br><br>शिवा, सरजा को;
सोये हैं जो रणबलीवैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को, उन्हें टेरो रे !<br>नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !<br><br>टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
झकझोरोआजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था, झकझोरो महान् सुप्तों आजिज आ कर जिसने स्वदेश कोछोड़ा था,<br>टेरोहम हाय, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;<br>विक्रमी तेजआज तक, असि की उद्दाम प्रभा कोजिसको गुहराते हैं,<br>राणा प्रताप‘नेताजी अब आते हैं, गोविन्द, शिवा, सरजा कोअब आते हैं;<br><br>
वैराग्यवीरसाहसी, बन्दा फकीर भाई शूर-रस के उस मतवाले को,<br>टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई आज़ाद हिन्दवाले को।<br><br>
आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा थाखोजो,<br>टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,<br>अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं,<br>?‘नेताजी अब आते हैं, अब आते वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं;<br><br>?
साहसीजा कहो, शूर-रस के उस मतवाले कोकरें अब कृपा,<br>टेरोनहीं रूठें वे, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।<br><br>बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?<br>अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?<br>बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?<br>वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?<br><br> जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,<br>बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।<br><br> हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,<br> सारी लपटों का रंग लाल होता है।<br>जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,<br>
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।
</poem>
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