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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या गुरुवर?
 
दिया शाप अत्यन्त निदारुण, लिया नहीं जीवन क्यों हर?
 
वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों लेते हैं?
 
अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?'
 
परशुराम ने कहा- 'कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो,
 
जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले सादर वहन करो।
 
इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है,
 
मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।
 
'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?
 
एक शस्त्र-बल से न वीर, कोई सब दिन कहलाता है।
 नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन, 
नये भाव, नूतन उमंग से , वीर बने रहते नूतन।
 
'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी,
 
इनके रहते तुम्हें जीत पायेगा कौन सुभट भारी।
 
अच्छा लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे,
 
भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे।
 
'अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,
 
रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को।
 
हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन,
 
सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?
 
'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।
 
इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।
 
अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो।
 
देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।
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