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रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 2

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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,
 
पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी.
 
रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,
 
मुँह-माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था
 
पहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका,
 
कर्ण नाम पड गया दान की अतुलनीय महिमा का.
 
श्रद्धा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,
 
अपना भाग्य समझ भजते थे उसे भाग्यहत प्राणी.
 
तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,
 
किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से.
 
व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,
 
कठिन मूल्य माँगने सामने भाग्य देह धर आया.
 
एक दिवास जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,
 
कर्ण जाह्नवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को.
 
कटि तक डूबा हुआ सलिल में किसी ध्यान मे रत-सा,
 
अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा.
 
हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,
 
हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को.
 
किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,
 
कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था.
 
विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,
 
धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे.
 
पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,
 
इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला.
 
कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने आओ,
 
मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूनाओ.
 
अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,
 
यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है.
 
'माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?
 
अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?
 मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से, 
याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से.
 
'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
 
भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना?
 
आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,
 
उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर.
 
'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है?
 
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है.
 
कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,
 
तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?
 
'दीनों का सन्तोष, भाग्यहीनों की गदगद वाणी,
 
नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,
 
हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधरों का,
 
पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नरों का.
 
'इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?
 
पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरूँ मैं?
 
मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,
 
मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आए
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