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05:16, 5 सितम्बर 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अजय सहाब
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|संग्रह=
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<poem>
दिन में जीता हूँ मगर रात में मर जाता हूँ
इक जहन्नम सा है यादों का जिधर जाता हूँ
मैंने तुझ जैसे किसी शख़्स को चाहा था कभी
अब तो इस बात को सोचूं भी तो डर जाता हूँ
कोई दरिया है तसव्वुर के किसी कोने में
जिस में हर शाम मैं चुपचाप उतर जाता हूँ
अब कोई प्यार जताए तो हंसी आती है
एक बेज़ारी के अहसास से भर जाता हूँ
अब तो उस राह पे वो दोस्त ,न यादें उसकी
फिर भी जाता हूँ तो पत्थर सा ठहर जाता हूँ
कोई अब मुझको संभाले तो फिसलता हूँ 'सहाब'
कोई अब मुझको समेटे तो बिखर जाता हूँ
</poem>