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<poem>
हर इक रिश्ता बिखरा बिखरा क्यूँ लगता है
इस दुनिया में सब कुछ झूटा क्यूँ लगता है

मेरा दिल क्यूँ समझ न पाया उन बातों को
जो वैसा होता है ऐसा क्यूँ लगता है

जो यादें अक्सर तड़पाती है इस दिल को
उन यादों का दिल में मेला क्यूँ लगता है

उस को फ़िक्र वो सब से बड़ा कैसे हो जाए
मैं सोचूँ वो इतना छोटा क्यूँ लगता है

दुनियावी रिश्ते तो सच्चे कब थे लेकिन
रूहों का मिलना भी झूटा क्यूँ लगता है

मेरे हिस्से में आई मय का हर क़तरा
उस की आँखों ही से छलका क्यूँ लगता है

'अम्बर' जी तुम शे'र तो कह लेते हो लेकिन
हर इक मिस्रा टूटा-फूटा क्यूँ लगता है
</poem>
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