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अहिल्या / इंदिरा शर्मा

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गौतम तुम्हारे शाप का दंश
विष - सम |
प्रस्तर बनी अहल्या , नि:संग
एक ओर जागा था पौरुष
किया न सत्य का संधान
किया अपौरुषेय कृत्य
दिया श्राप , किया त्याग , साध्वी थी पत्नी , अबोध
इंद्र का कृत्य था नीच |
अबला अहल्या कैसे बनती सबला
प्रस्तर बन कर हुई अनाथ – शिला अवाक् |
गौतम जब जागा तुम्हारा विवेक
तब तक बहुत हो चुकी थी देर |
न जाने कितने कल्प युग बीते
शीत , ग्रीष्म , वर्षा के तीर सहते
अचल हिमगिरि सा तुम्हारा परिवेश
अहल्या तुम थीं नारी विशेष |
करने को तुम्हारा , प्रस्तर प्रतिमा से उद्धार
राम आए तुम्हारे द्वार बन के अवतार
उनके कोमल चरणों का प्रहार
उसने बनाया तुम्हें नारी साकार |
धन्य तुम अहल्या –
लांछित , परित्यक्ता नारी –
राम का स्पर्श , तुम्हारा उत्कर्ष
तुम्हे ले गया अपवर्ग ( स्वर्ग )
तुम मोक्ष की स्वामिनी
प्रभु भक्ति की अनुगामिनी |
</poem>
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