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अजनबी, अनजान / इंदिरा शर्मा

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अजनबी ,
कुछ तो कहो ,
चुप न रहो |
ये टिमटिमाता दिया , गहराई रात –
कुछ तो कहो , चुप न रहो |
सरकता आँचल
नभ से अकस्मात् –
सितारों से झिलमिलाता
धरा - आकाश |
नदिया में भी गतिमान
चंचल लहरें उद्भ्रांत
लौट - लौट जातीं , विचुम्बित कर तट
निरंतर गतिमान ,
पूर्ण रात्रि जागरण , एकांत
विधि का विधान |
अजनबी !
कुछ तो कहो
चुप न रहो |
बीतने लगी निशा
छिटकी इन्गूरी प्रभा
पूर्व दिशि
सूर्य रश्मियों ने किया संधान
हुई , प्रबुद्ध प्रकृति
देखो ,
कैसी संभ्रांत |
अब तो कुछ कहो –
चुप न रहो ,
अजनबी , अनजान
</poem>
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