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05:24, 7 सितम्बर 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
}}
{{KKCatRubaayi}}
<poem>
मुमकिन है कि कुहसार चले या गल जाये
अग़लब है कि सूरज से समंदर जल जाये
लेकिन ये तो मुमकिन ही नहीं हो सकता
आदत से कभी अपनी कमीना टल जाये।
</poem>