Changes

'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश तन्हा |अनुवादक= |संग्रह=शोरे-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=शोरे-तन्हाई / रमेश तन्हा
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हवस ही रखती है हर आदमी को ज़िंदा भी
हुमकता कब है हवा के बग़ैर पत्ता भी।

उबूर ज़ात के सहरा को कोई कैसे करे
जब उसको राह न दे उसका अपना रस्ता भी ।

हम अपनी ज़ात के जिन्दां में घुट के मर जाते
अगर न होता मुआविन हमारा साया भी।

वही जो करता रहा खुद को दूसरों पे निसार
उसी को ज़िन्दगी करने का था सलीक़ा भी।

तरीके-कार में उसके था ऐसा हुस्न-ए-यकीं
कि रास आते गये उसको कारे-बेजा भी।

टिकीं न नज़रें नज़ारों पे आंख वालों की
उसी ने देखे नज़ारे भी, था जो अंधा भी।

सियाह-कारियां उसकी न थीं, अयाँ किस पर
हज़ार कपड़े पहन कर भी, था वो नंगा भी।

हर एक आदमी बीमार है महब्बत का
बगैर इसके, मगर है किसी का चारा भी।

वो अपनी ज़ात के हुजरे से बाहर आ न सका
रहा हुजूम में शामिल भी और तन्हा भी।

किसी के भाग का विष हो, लपक के पी लेता
वो एक साथ था मुश्किल कुशा भी भोला भी।

न जाने दस्तकें क्यों ख़ैमा-ज़न रहीं फिर भी
था दर पे कुफ़्ल भी और बंद था दरीचा भी।

वही रहेगा सदा दिल को दर्द से लबरेज़
जो सर-फिरा भी हो मुझ-सा, अज़ाब जोया भी।

किसी भी और जगह क्यों नहीं, यहीं क्यों हूँ
ये किसने लिख दिया मेरा यहां पे होना भी?

मुझे कि घूमना भी है खुली दिशाओं में
फिर अपनी ज़ात पर रखना है खुद ही पहरा भी।

यकीन लाएं भी तो किस पे शहर में 'तन्हा'
किसी के चेहरे पे हो उसका अपना चेहरा भी।
</poem>
Mover, Reupload, Uploader
3,967
edits