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06:58, 7 सितम्बर 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अंबर खरबंदा
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
जब मुझे सच्चाइयों का मर्म समझाते हैं लोग
क्या बताऊँ किस क़दर झूटे नज़र आते हैं लोग
दर हक़ीक़त हाल जब भी पूछने आते हैं लोग
रंजो-ग़म तो बस युँही तुहफ़े में दे जाते हैं लोग
दौरे-हाज़िर का है ये सबसे बड़ा ग़म दोस्तो !
शह्र में रह कर भी परदेसी से हो जाते हैं लोग
बूढ़ी धुंधली चार आँखों को तरसता छोड़ कर
डालरो-दीनार की दुनिया में खो जाते हैं लोग
तुम यहाँ बैठो तुम्हारे वास्ते लाता हूँ फल
ऐसा कह कर माँ से तीरथ में बिछड़ जाते हैं लोग
इतनी मुश्किल, इतनी आफत, इतने झंझट, इतने ग़म
चार दिन की ज़िन्दगी जीने में मर जाते हैं लोग
मेरा चेहरा मेरा चेहरा है ये आईना नहीं
सामने आने से फिर क्यों यार! कतराते हैं लोग
तुम भी ‘अंबर’ राह लो घर की यही दस्तूर है
शाम घिर आती है तो फिर घर चले जाते हैं लोग
</poem>