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07:20, 7 सितम्बर 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नुसरत मेहदी
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|संग्रह=
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<poem>
आजिज़ी आज है मुमकिन है न हो कल मुझ में
इस तरह ऐब निकालो न मुसलसल मुझ में
ज़िंदगी है मिरी ठहरा हुआ पानी जैसे
एक कंकर से भी हो जाती है हलचल मुझ में
मैं ब-ज़ाहिर तो हूँ इक ज़र्रा ज़मीं पर लेकिन
अपने होने का है एहसास मुकम्मल मुझ में
आज भी है तिरी आँखों में तपिश सहरा की
करवटें लेता है अब भी कोई बादल मुझ में
जो अँधेरों में मेरे साथ चला बचपन से
अब वो तारा भी कहीं हो गया ओझल मुझ में
ख़्वाहिशें आ के लिपट जाती हैं साँपों की तरह
जब महकता है तिरी याद का संदल मुझ में
अब वो आया तो भटक जाएगा रस्ता 'नुसरत'
अब घना हो गया तन्हाई का जंगल मुझ में
</poem>