1,494 bytes added,
07:29, 7 सितम्बर 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नुसरत मेहदी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
ग़लत-बयानी पे उस की यक़ीं दिखाती रही
मैं सब समझती रही और मुस्कुराती रही
ये सोच कर कि तग़ाफ़ुल तो उस की फ़ितरत है
मैं अपने दिल को बड़ी देर तक मनाती रही
उसे तो लौट के आना ही था वो लौट आया
मगर वो आया तो हाथों से उम्र जाती रही
अजब रिवायती औरत है ज़िंदगी मेरी
हमेशा हस्ब-ए-ज़रूरत ही चाही जाती रही
उसे चमन की बहार-ओ-ख़िज़ाँ से क्या मतलब
वो एक भोली सी चिड़िया थी चहचहाती रही
वो दिन कि बोझ कड़ी धूप में उठाता रहा
मैं रतजगों की थकन ओढ़ती बिछाती रही
नज़र में रहना था 'नुसरत' तो उस की पलकों से
तमाम उम्र मैं गर्द-ए-सफ़र हटाती रही
</poem>