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नयी-नयी आँखें / निदा फ़ाज़ली

92 bytes added, 13:52, 11 अक्टूबर 2020
{{KKRachna
|रचनाकार=निदा फ़ाज़ली
|अनुवादक=
|संग्रह=खोया हुआ सा कुछ / निदा फ़ाज़ली
}}
{{KKCatGhazal}}<poem>नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है<br>कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।<br><br>
मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं<br>जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।<br><br>
मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे<br>सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।<br><br>
चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं<br>जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है ।<br><br>
हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में<br>जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।<br><br/poem>
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