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आधी रात को / फ़िराक़ गोरखपुरी

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ये मौजे-नूर,ये भरपूर ये खिली हुई रात
कि जैसे खिलता चला जाए इक सफ़ेद कँवल
सिपाहे-रूस हैं अब कितनी दूर बर्लिन से ?--जगा रहा है कोई आधी रात का जादू-
छलक रही है खुमे-गैब से शराबे-वुजूद
फ़जा-ए-नीमशबी नर्गिशे-खुमार-आलूद
फज़ा के सीने में ख़ामोश सनसनाहट-सी
लटों में रात की देवी की थरथराहट-सी
ये कायनात अब नींद ले चुकी होगी!
५.
ये चाँदनी है कि उमड़ा हुआ है रस-सागर
इक आदमी है कि इतना दुखी है दुनिया में
</poem>
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