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क़दम-दर-क़दम मैं छला जा रहा हूँ
जो ज़िंदा हूँ तो क्यों मरा जा रहा हूँ
बहुत कुछ ख़ुदा ने मुझे भी दिया है
परेशाँ मगर क्यों हुआ जा रहा हूँ
बुना था किसी दूसरे के लिए जो
उसी जाल में खुद फँसा जा रहा हूँ
 
है कोई जो थामें मेरा हाथ बढ़कर
स्वयं की नज़र में गिरा जा रहा हूँ
 
यही मुझको हासिल हुआ ज़िंदगी से
जला जा रहा हूँ, बुझा जा रहा हूँ
 
समय का वो अजगर मुझे खींचता है
उसी की तरफ़ मैं बढ़ा जा रहा हूँ
 
यही सोच लेना, जहाँ से चला था
वहीं लौटकर फिर चला जा रहा हूँ
</poem>
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