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ज़ख़्म दर ज़ख़्म दिल निखरता हुआ
आ तुझे देख लूँ संवरता हुआ

ऐसा माहौल है कि चलता हूँ
अपने ही साए से मैं डरता हुआ

आजकल अपने ख़ुद को देखता हूँ
रेज़ा रेज़ा सा मैं बिखरता हुआ

मेरे मौला कभी नहीं देखूं
अपनी इंसानियत को मरता हुआ

बिन पिए लड़खड़ाने लगता हूँ
तेरे कूचे से मैं गुज़रता हुआ

मैं निकल आया ख़ुद कितनी दूर
अपने ख़ुद को तलाश करता हुआ

</poem>