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Kavita Kosh से
जो मै नें तुम्हे दिया है,
उस दु:ख में नही जिसे
बेझिझक मै नें मैंने पिया है।
उस गान में जियो
जो मै नें तुम्हे सुनाया है
उस आह में नहीं जिसे
उस द्वार से गुज़रो
जो मै नें मैंने तुम्हारे लिये खोला है
उस अन्धकार से नहीं
जिस की गहराई को
बार-बार मै नें मैंने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।
वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगाबुनूंगा;
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ , चुनूँगा।चुनूंगा।
वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूँगारहूंगा;मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथोड़े से तोड़ -तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।रहूंगा।
सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो:
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्य!