986 bytes added,
18:40, 17 जनवरी 2021 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमुद बंसल
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
1
सुकून न बिकता किसी हाट,
न बिकता किसी दुकान ।
छिपा बैठा गहरे मन,
वहीं इसकी धरा औ' आसमान।।
2
कभी चाह में अटक गया,
कभी शीशे-सा चटक गया।
परम को पाने चला था,
पर जग में भटक गया।।
3
मुझे बनाया, मुझमें रहे,
रहे और मिट गए।
कर्म-रूप में हूँ खड़ा,
कितने युग सिमट गए।।
4
पर्वत से निकला दरिया हूँ,
बहते रहना मेरा काम।
सागर में समा जाता मैं,
मिट जाता मेरा नाम।।
</poem>