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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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50
जंगल काँटों का घना, विषधर चारों ओर।
निश्चय होती है सदा, अँधियारे की भोर।
51
गाँव ,गली से द्वार तक, फैली है बारूद।
आँगन तक पहुँचे नहीं, कैसे बचे वजूद।
52
बहुत कुछ यहाँ बच गया, अगर बचे कुछ फूल।
जीवन में खुशबू रहे ,दूर हटें सब शूल।
53
सींच भाव से मन-भूमि , दे डाला उपहार।
रूप हज़ारों हों भले, एक नाम है प्यार।
54
विधना से अब तक किया,मैंने यही सवाल।
वसन्त ले पतझर दिए, हमको पूरे साल।
55
मन से की आराधना, सुख थे सागर पार।
असुर खड़े घर द्वार पर,करते हाहाकार।
56
हीरे, सोने से परे तुम हो मन की आस।
तुझ बिन दो पल ना चले, जर्जर तन की साँस।

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