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Kavita Kosh से
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तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
आधी सदी से बैठी हूँ इन संकरी राहों में
टकटकी लगाए देख रही हूँ
बिना दाँव जो निस्वार्थ हो
अब मन अविचल शैल बन चुका
अपराजिता के गंभीर पीड़ायुक्त हास में
या भटके हुए हृद्य हृदय के सूक्ष्म प्रवास मेंतितर-बितर जीवन - शैली के
उथल-पुथल होते विश्वास में
पुरुषत्व की ऊँची वर्जनाओं में
कुछ स्नेह क्या तुम पा पाओगे?
ये तो पागलपन है
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
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