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Kavita Kosh से
चलो फिर अहिंसा के विरबे बिरवे उगाएँ !
बहुत लहलही आज हिंसा की फसलें
अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
थे सोये हुए भाव जर्नमन जनमन में गहरे
पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे,
धरा जिसको महसूसती आज तक है
उठीं वक़्त की आँधियाँ आँधियां कुछ विषैली
नियति जिसको महसूसती आज तक है,
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