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<poem>
उसने दरवाजे की ओट से
दबे रुआँसे स्वर में कहा
सुनो! शाम को जल्दी लौट आना
जाने वाले ने कहा
मेरे भरोसे मत रहना
तुम अपनी व्यवस्था कर लो।
शाम ढली, रात गहरा गयी
वह खिड़की से लगातार
रास्ता देख रही है-
खिड़की की आँखे थक गई
मगर उसकी नहीं
वह जड़ शिला हो गई
प्रतीक्षा सदियों से अब तक
खत्म नहीं हुई।
न जाने कितनी रातें
पथराई आँखों ने ऐसे ही बिता दी।
जाने वाला समय पर कभी न लौटा
बीत गए मौसम
वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत...बसंत...
और वह कि मानती ही नहीं
अब भी खिड़की पर बैठी है...

</poem>