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<poem>
हमने तुलसी चौरे मेटे
सींची नागफनी ।

देकर निर्वासन पुष्पों को
कृत्रिम इत्र मिले ।
बन्धक चन्दन की सुवास कर,
विषधर नहीं हिले ।

आँख कान की सन्दर्भों पर
सच से नहीं बनी ।

सद्भावों से रहे अपरिचित
ख़ुद के लिए जिए ।
आयातित यशमण्डन ख़ातिर ,
तलवे चूम लिए ।

रीढ़ झुका दी दरबारों में ,
जो कल रही तनी ।

रिश्तों के अंकुर झुलसाने,
मठ्ठा डाल दिया,
अन्तहीन लिप्सा के विष को
जीवन हेतु पिया ।

मूल्यों की लोलुपता ने की,
पग-पग राहजनी ।
</poem>
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