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|रचनाकार=अज़हर फ़राग़
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
दोष देते रहे बेकार ही तुग़्यानी को
हमने समझा नहीं दरिया की परेशानी को
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को
बेघरी का मुझे एहसास दिलाने वाले
तू ने बरता है मिरी बे-सर-ओ-सामानी को
शर्मसारी है कि रुकने में नहीं आती है
ख़ुश्क करता रहे कब तक कोई पेशानी को
जैसे रंगों की बख़ीली भी हुनर हो 'अज़हर'
ग़ौर से देखिए तस्वीर की उर्यानी को
</poem>
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दोष देते रहे बेकार ही तुग़्यानी को
हमने समझा नहीं दरिया की परेशानी को
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को
बेघरी का मुझे एहसास दिलाने वाले
तू ने बरता है मिरी बे-सर-ओ-सामानी को
शर्मसारी है कि रुकने में नहीं आती है
ख़ुश्क करता रहे कब तक कोई पेशानी को
जैसे रंगों की बख़ीली भी हुनर हो 'अज़हर'
ग़ौर से देखिए तस्वीर की उर्यानी को
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