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<poem>
क्यूँ ये दूरी सही नहीं जाती
ज़िंदगी हम से जी नहीं जाती

बंदगी शौक़-ए-सजदा हद से और
दिल की वारफ़्तगी नहीं जाती

याद इक बार उनकी आती है
आँखों से फिर नमी नहीं जाती

इतना हसरत-ज़दा हुआ है दिल
प्यास दिल की सही नहीं जाती

सब पे दरिया-दिली तुम्हारी बस
अपनी तिश्ना-लबी नहीं जाती

आग उल्फ़त की कैसे भड़केगी
दिल की अफ़्सुर्दगी नहीं जाती

अज़्म था आह भी न निकले पर
अब ज़ुबाँ हम से सी नहीं जाती

चश्म-ए-साक़ी से पी के ऐ 'मयकश'
लज़्ज़त-ए-बे-ख़ुदी नहीं जाती
</poem>
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