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11:51, 2 जुलाई 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=उदय कामत
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<poem>
लगता है उक़ूबत है कि हम कुछ नहीं कहते
नज़रों की करामत है कि हम कुछ नहीं कहते
उनकी ये रक़ाबत है कि हम कुछ नहीं कहते
अपनी ये नदामत है कि हम कुछ नहीं कहते
अपनों की अदावत ने परेशान किया है
ग़ैरों की रिफ़ाक़त है कि हम कुछ नहीं कहते
हम जस्त-ए-हुनर लफ्ज़-तराशी में थे मसरूफ़
पर उन की शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते
उल्फ़त की असीरी में बहुत कहना था हम को
ये रस्म-ए-मुहब्बत है कि हम कुछ नहीं कहते
बे-ज़ोर की साकित की दुआ होती है मंज़ूर
ख़ामोशी में क़ुव्वत है कि हम कुछ नहीं कहते
है रस्म-ओ-रिवायत का ज़माने में बहुत शोर
'मयकश' ये बग़ावत है कि हम कुछ नहीं कहते
</poem>