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ये इश्क़ है / निर्मल 'नदीम'

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<poem>
ये इश्क़ है, वहशत है, कि आशुफ़्ता सरी है,
जो कुछ है मेरे सर पे मगर ताजवरी है।

आंखों में चमकती है कशिश उसके बदन की,
जलती है ज़मीं धूप की हर शाख़ हरी है।

हर चारे से बढ़ता है मेरे ज़ख़्म का रिसना,
लानत है अगर वक़्त की ये चारागरी है।

हर मौज में है उसके बदन के कई जादू
वो रश्क ए क़मर, रश्क ए जिना, रश्क ए परी है।

उम्मीद भी ख़ुद लौट के अब आ न सकेगी,
इस दौर के रहबर की अजब राहबरी है।

ठहरा ही नहीं दश्त नवर्दी का मुसाफ़िर,
आशिक़ के मुक़द्दर में फ़क़त दर ब दरी है।

शर्मा के शब ए ग़म मेरी बांहों में सिमट आ,
मैंने ही सितारों से तेरी मांग भरी है।

मुझसे वो नदीम अब भी ताअल्लुक़ न रखेंगे,
आदत है बुरी मेरी हर इक बात खरी है।</poem>
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