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ये सुबह / रेखा राजवंशी

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कंगारूओं के देश की
ये सुबह
कितनी अलग है

न कहीं मुर्गे ने बांग दी
न किसी मस्जिद में
अजान हुई
दरवाज़े की घंटी
कुछ ज़्यादा खामोश है
न आपाधापी है
न आक्रोश है

न दूध वाले ने पुकार दी
न सब्जी वाले ने गुहार की
सड़क पर कुत्ते भी नहीं भौंके
लोग किसी हॉर्न से नहीं चौंके

न यहाँ मां ने राम भजे
न टी वी, रेडियो पर गीत बजे

सब कुछ जैसे
हो गया छूमंतर
आबरा का डाबरा
कंगारूओं के देश का
चलने लगा जंतर।
</poem>