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|संग्रह=कंगारूओं के देश में / रेखा राजवंशी
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<poem>
हाँ,
मुझे याद आते हैं
वे बच्चे
जो नए पुराने के बीच की
परिभाषा तलाशते हैं
और सामंजस्य की
अंतहीन प्रक्रिया में
अपने अर्थ छांटते हैं ।

स्कूलों की मशरूम कतारें
उगती चली जाती हैं
आने वाली पीढ़ी को
कुछ और उलझाती हैं

और छोटे बच्चे
प्रतिस्पर्धा के भारी बैग लिए
झपकियाँ लेते
झिड़कियां खाते
बस में बैठ जाते हैं

वे अपने बुजुर्गों से
तथाकथित भाग्य निर्माताओं से
कर नहीं सकते तर्क-वितर्क
खेलने-खाने की उम्र में
बस करते रहते हैं
अंतहीन होमवर्क ।
</poem>