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धर नयनों में दीर्घ एक प्रतीक्षा, शेष स्वप्न हुआ दग्ध तप्त नीर में
वीणा के तार पर रख व्यथाएँ समस्त, आरुणी रही तटिनी तीर में
हो रही थी प्रातः वंदना स्वरित, किंतु निविड़ प्रोष में थी देहद्युति
तीक्ष्ण आघातों की शैया पर दे रही थी ज्योत्स्ना आत्माहुति।
प्राची थी शांत... मंत्रमग्न- मुग्धविश्रान्ति में था शीतल तमीश
प्रतीची के नीलाभ में अल्प शुभ्रा..शीकर सिक्त था शृंग शीश
किंतु किसने किया धर्मयुद्ध का.. कर्मध्वंस का मुक्त आह्वान ?
निर्वस्त्र समाज का उदण्ड नृत्य से सर्वस्व का हुआ अवसान ।
घृणा द्वेष की उत्ताप से भस्म हो रहा तरुण शरीर मेरा
अर्धनग्न विचारों से क्षत -विक्षत है रक्तपात सहता वीर मेरा
क्यूँ... क्यूँ तुम... नहीं करते रक्तबीज सा समर का समापन ?
क्यूँ नहीं देते शाश्वत आदेश...कि पौर्णमास का हो आगमन ?
है यदि भाग्य में केवल अनेक युद्ध...व विश्वास है तममय
मुझे है स्वीकार जन्म जन्मांतर का... अनिर्दिष्ट निरय।
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