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<poem>
जगत को सत मूरख कब जाने
दर-दर फिरत कटोरा ले के, मांगत नेह के दाने
बिनु बदले उपकारी साईं, ताहि नहीं पहिचाने
आपुनि-आपुनि कहत अघायो, वे सब अब बेगाने
निज करमन की बाँध गठरिया, घर चल अब दीवाने
रैन बसेरा, जगत घनेरा, डेरा को घर जाने
जब बिनु पंख, हंस उड़ जावे, अपने साईं ठिकाने
पात-पात में लिखा संदेशा, केवल पढ़ही सयाने
आज बसन्ती, काल पतझरी, अगले पल वीराने
बहुत जनम धरि जनम अनेका, जनम-जनम भटकाने
मानुष तन धरि, ज्ञान सहारे, अपनों घर पहचाने
</poem>