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वेश्या / शेखर सिंह मंगलम

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<poem>
मेरे दर पर आदर्श, नैतिकता कुरूप;
देह पर एकांत में
इसे हर पल उतारता पुरुष
क्रूर, कुंठित मानसिकता महज़ सुरूप
चमड़ी में स्वभाव लपेटता,
निर्लज्जता में मेरे
आनंदित यह कामरूप।

दुधमुहाँ किन्तु बत्तीसों दांत
ये वहशी नोचते अपवित्र रूप,
मेरे आँसुओं की कतारों में भीगता विश्वरूप
सवालों के बौछारों से अस्तित्व पूछता
कौन-सा है ये सत्य विद्प?

कैसा ये चितकबरे समाज का स्वरूप कि
निशिद्धता में भी मुझे वैध्यता मिलती जबकि
न ही जिस्म के दोनों पल्ले
और न ही संग एकल रोशनदान
दीवारें भी हरित पर्ण पपड़ियां छोड़ रही
चमक नोना चाट गया
मैं जैसे थार की कोई कूप।

शिथिलता के हौदे में सिकुड़ निष्क्रिय
तनिक भी मैं नहीं कामुक
ओढ़े हूँ पतझड़ी, अपवादी, कृत्रिम मुस्कान
हर इंसान एकांत में करता मेरा सम्मान
बाहर करता केवल अपमान जबकि
चलनी सब मैं ही सूप।

सच में मैं कोई समस्या हूँ?
खुली किताब तो हूँ मज़बूरियों की
पुरुष के रहस्मय अय्याशियों के लिफ़ाफ़े की मज़मून
चलती मेरी दुकान भले ही मैं वैश्या हूँ
तुम भी मेरा हिस्सा
चलो मान लिया मैं समस्या हूँ।
</poem>
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