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|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
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<poem>
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये तो बोलते भी हैं, हर भाषा।

यदि ऐसा न होता
क्योंकर पूजास्थलों की बनावट
देखकर ही
कोई कैसे अंदाज लगा लेता
कि इसकी चारदीवारी में
कौन से धर्म ग्रंथों की होती है पूजा।

तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े भी बोल रहे हैं
कि इन पत्थरों से
एक ऐसा पूजास्थल बनाना
जिस भाषा कोई भी बोली जाती हो
परंतु बोल
मानवता की समृद्धि के
गाये और पढ़े जाते हों।
</poem>
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