भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुशील द्विवेदी |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुशील द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''(एक)'''
सुबह के 4 बजे हैं
जिन्हें जगना था, जग गये हैं
हेरा अभी सोई है
क्योंकि उसे अभी सोना है।
स्कॉच की टूटी बिखरी बोतलों सा
मैं जगकर क्या करूंगा
कुछ नहीं, सिर्फ औंधा पड़ा रहूंगा।
हेरा को देखता हुआ...
'''(दो)'''
आज सोमवार है
मुझे शिव मन्दिर जाना है
हेरा भी छुपछुपाकर वहाँ आयेगी
उसे अपने प्रेमी से डर है
वह किसी से मिलने की इजाजत नहीं देता.
'''(तीन)'''
शाम के पाँच बजे हैं
मैं उल्टी- पेंटिंग बना रहा हूँ
- चिड़िया, आकाश,पर्वत, नदी
सब मेरी कूची के सहारे जन्मे
किन्तु हेरा...?
हेरा पेंटिंग नहीं है
वह मेरे स्वप्न लोक की सर्जक है
'''(चार)'''
सुबह आशु ने किताब दी
मैंने पढ़ना शुरु किया
और शाम तक
सिर्फ "हे.... रा.." पढ़ा
उसे अडंर लाइन किया
एक नहीं, कई कई रंगों से...
'''(पाँच)'''
आज हेरा का खत मिला
लिखा है - वासु को
उसकी शिष्या से प्रेम हो गया है
वासु गुरु है, उसे अक्सर
सुन्दर शिष्या से प्रेम हो जाया करता है
'''(छः)'''
आज मैंने देव की कविता पढ़ी
और उसके चंद शब्दों को रंग दिया
- "काजल, आँखें, जुल्फ़ें,रुख्सार, होंठ"
इसके अलावा और एक शब्द
जिसे देव ने नहीं
मैंने लिखा था - हेरा
'''(सात)'''
सुबह के पाँच बजे हैं
बकुल ने आवाज़ दी - "साहेब ! चाय "
मैंने एक कप चाय ली
खिड़की से बाहर झांककर देखा, मुस्कुराया -
वासु, पेंटिंग, किताबें, कविताएँ सब ख्वाब थे।
केवल हेरा थी जो हवा- सी
मेरे होंठों पर खिल रही थी
</poem>